वर्ण और वर्णमाला की परिभाषा-
वर्ण किसे कहते हैं ? varn kise kahte hain
वर्ण की परिभाषा varn ki paribhasha -
भाषा की सबसे छोटी ध्वनि को वर्ण कहते हैं । लिखित ध्वनि संकेतों को देवनागरी लिपि के अनुसार वर्ण कहा जाता हैं वर्ण उस मूल ध्वनि को कहते हैं, जिसके खंड या टुकड़े नहीं किये जा सकते । जैसे- अ,आ,इ, ई, क, ख्, ग इत्यादि।उदाहरण के लिए : राम ने आम खाया इस वाक्य के छोटे खंड होंगे राम + ने+ आम + खाया
लेकिन इनसे भी छोटे खंड राम = र+आ+म
, ने = न+ए, आम = आ+म खाए = ख+आ+ए मूल ध्वनियाँ हैं जिनके आगे खंड नहीं किये जा सकते
। इन्हीं अखंड मूल ध्वनियों को वर्ण कहते हैं।
वर्णमाला varnmala ki paribhasha -
किसी भाषा के समस्त वर्णों के व्यवस्थित
समूह को वर्णमाला कहते हैं।
प्रत्येक भाषा की अपनी अलग वर्णमाला
होती है।
हिंदी- अ, आ, क, ख, ग.....
अंग्रेजी- A, B, C, D,....
वर्ण के भेद या प्रकार
हिंदी भाषा की वर्णमाला में दो
प्रकार के वर्ण होते है।–
(1)स्वर (vowel) (2) व्यंजन (Consonant)
स्वर (vowel) :-
वे वर्ण जिनके उच्चारण में किसी अन्य वर्ण की सहायता की आवश्यकता नहीं होती, स्वर कहलाता है।
इसके उच्चारण में कंठ, तालु का उपयोग होता है, जीभ, होठ का नहीं।
हिंदी वर्णमाला में 11 स्वर है
जैसे- अ आ इ ई उ ऊ ऋ ए ऐ ओ औ
स्वर स्वतंत्र होते हैं इनका
उच्चारण करने के लिए किसी अन्य वर्ण की आवश्यकता नहीं होती
‘अं’ को अनुस्वार तथा ‘अः’ को
विसर्ग कहते हैं । ‘अं’ तथा ‘अः’ स्वर नहीं हैं । अनुस्वार और विसर्ग न तो स्वर
हैं, न व्यंजन; किन्तु ये स्वरों के सहारे चलते हैं।
स्वर के भेद
स्वर के दो भेद होते है-
(i) मूल स्वर (ii) संयुक्त स्वर
(i) मूल स्वर:- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ
(ii) संयुक्त स्वर:- ऐ (अ +ए) और औ (अ +ओ)
मूल स्वर के भेद
मूल स्वर के तीन भेद होते है -
(i) ह्स्व स्वर(ii) दीर्घ स्वर(iii)प्लुत स्वर
(i)
ह्रस्व स्वर :- जिन स्वरों के उच्चारण में कम समय लगता है उन्हें ह्स्व स्वर कहते है।
ह्स्व स्वर चार होते है -अ आ उ ऋ।
'ऋ' की मात्रा (ृ) के रूप में लगाई जाती है तथा उच्चारण 'रि' की तरह होता है।
(ii)दीर्घ स्वर :-वे स्वर जिनके उच्चारण में ह्रस्व स्वर से दोगुना समय लगता है, वे दीर्घ स्वर कहलाते हैं।
सरल शब्दों में- स्वरों उच्चारण में अधिक समय लगता है उन्हें दीर्घ स्वर कहते है।
दीर्घ स्वर सात होते है -आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ।
दीर्घ स्वर दो शब्दों के योग से
बनते है।
जैसे- आ =(अ +अ )
ई =(इ +इ )
ऊ =(उ +उ )
ए =(अ +इ )
ऐ =(अ +ए )
ओ =(अ +उ )
औ =(अ +ओ )
(iii)प्लुत स्वर :-वे स्वर जिनके उच्चारण में दीर्घ स्वर से भी अधिक समय यानी तीन
मात्राओं का समय लगता है, प्लुत स्वर कहलाते हैं।
इसका चिह्न (ऽ) है। इसका प्रयोग
अकसर पुकारते समय किया जाता है। जैसे- राऽऽम, ओऽऽम्।
इसे 'त्रिमात्रिक' स्वर भी कहते
हैं।
अं, अः अयोगवाह कहलाते हैं। वर्णमाला में इनका स्थान स्वरों के बाद और व्यंजनों से पहले होता है। अं को अनुस्वार तथा अः को विसर्ग कहा जाता है।
अनुनासिक, निरनुनासिक, अनुस्वार और विसर्ग
अनुनासिक, निरनुनासिक, अनुस्वार और विसर्ग- हिन्दी में
स्वरों का उच्चारण अनुनासिक और निरनुनासिक होता हैं। अनुस्वार और विर्सग व्यंजन
हैं, जो स्वर के बाद, स्वर से स्वतंत्र आते हैं। इनके संकेतचिह्न इस प्रकार हैं।
अनुनासिक (ँ)- ऐसे स्वरों का उच्चारण नाक और मुँह से होता है और उच्चारण में
लघुता रहती है। जैसे- गाँव, दाँत, आँगन, साँचा इत्यादि।
अनुस्वार ( ं)- यह स्वर के बाद आनेवाला व्यंजन है, जिसकी ध्वनि नाक से निकलती है। जैसे- अंगूर, अंगद, कंकन।
निरनुनासिक- केवल मुँह से बोले जानेवाला सस्वर वर्णों को निरनुनासिक कहते हैं।
जैसे- इधर, उधर, आप, अपना, घर इत्यादि।
विसर्ग( ः)- अनुस्वार की तरह विसर्ग भी स्वर के बाद आता है। यह व्यंजन है और
इसका उच्चारण 'ह' की तरह होता है। संस्कृत में इसका काफी व्यवहार है। हिन्दी में अब
इसका अभाव होता जा रहा है; किन्तु तत्सम शब्दों के प्रयोग
में इसका आज भी उपयोग होता है।
जिन वर्णो को बोलने के लिए स्वर की सहायता लेनी पड़ती है उन्हें
व्यंजन कहते है। वर्णमाला में 33 व्यंजन होते हैं।
जैसे- क, ख, ग, घ, ड़्, च, छ,ज ,झ, ञ्
ट,ठ,ड,ढ,ण, त, थ, द,ध,न,प,फ,ब भ, म, य् , र्, ल्, व् इत्यादि।
व्यंजनों तीन प्रकार के होते है-
1 स्पर्श व्यंजन
2 अन्तःस्थ व्यंजन
3 उष्म व्यंजन
(1)स्पर्श व्यंजन :- स्पर्श का अर्थ होता है -छूना। जिन व्यंजनों का उच्चारण करते समय
जीभ मुँह के किसी भाग जैसे- कण्ठ, तालु, मूर्धा, दाँत, अथवा होठ का स्पर्श करती है, उन्हें स्पर्श व्यंजन कहते है।
दूसरे शब्दो में- ये कण्ठ, तालु, मूर्द्धा, दन्त और ओष्ठ स्थानों के स्पर्श से बोले जाते हैं। इसी से इन्हें
स्पर्श व्यंजन कहते हैं।
इन्हें हम 'वर्गीय व्यंजन' भी कहते है; क्योंकि ये उच्चारण-स्थान की अलग-अलग एकता लिए हुए वर्गों में
विभक्त हैं।
ये 25 व्यंजन होते है
(1)कवर्ग- क ख ग घ
ङ ये कण्ठ का
स्पर्श करते है।
(2)चवर्ग- च छ ज झ
ञ ये तालु का
स्पर्श करते है।
(3)टवर्ग- ट ठ ड ढ
ण (ड़, ढ़) ये मूर्धा का स्पर्श करते है।
(4)तवर्ग- त थ द ध
न ये दाँतो का
स्पर्श करते है।
(5) पवर्ग- प फ ब भ
म ये होठों का
स्पर्श करते है।
(2)अन्तःस्थ
व्यंजन :- 'अन्तः' का अर्थ होता है- 'भीतर'। उच्चारण के समय जो व्यंजन मुँह
के भीतर ही रहे उन्हें अन्तःस्थ व्यंजन कहते है।
अन्तः = मध्य/बीच, स्थ = स्थित। इन व्यंजनों का उच्चारण स्वर तथा व्यंजन के मध्य
का-सा होता है। उच्चारण के समय जिह्वा मुख के किसी भाग को स्पर्श नहीं करती।
ये व्यंजन चार होते है- य, र, ल, व। इनका उच्चारण जीभ, तालु, दाँत और ओठों के परस्पर सटाने से
होता है, किन्तु कहीं भी पूर्ण स्पर्श नहीं
होता। अतः ये चारों अन्तःस्थ व्यंजन 'अर्द्धस्वर' कहलाते हैं।
(3)उष्म व्यंजन :- उष्म का अर्थ होता है- गर्म। जिन वर्णो के उच्चारण के समय हवा मुँह
के विभिन्न भागों से टकराये और साँस में गर्मी पैदा कर दे, उन्हें उष्म व्यंजन कहते है।
ऊष्म = गर्म। इन व्यंजनों के
उच्चारण के समय वायु मुख से रगड़ खाकर ऊष्मा पैदा करती है यानी उच्चारण के समय मुख
से गर्म हवा निकलती है।
उष्म व्यंजनों का उच्चारण एक
प्रकार की रगड़ या घर्षण से उत्पत्र उष्म वायु से होता हैं।
ये भी चार व्यंजन होते है-जनों का
उच्चारण करते समय हवा मुख के अलग-अलग भागों से टकराती है। उच्चारण के अंगों के
आधार पर व्यंजनों का वर्गीकरण इस प्रकार है :
(i) कंठ्य (गले से) - क, ख, ग, घ, ङ
(ii) तालव्य (कठोर तालु से) - च, छ, ज, झ, ञ, य, श
(iii) मूर्धन्य (कठोर तालु के अगले भाग
से) - ट, ठ, ड, ढ, ण, ड़, ढ़, ष
(iv) दंत्य (दाँतों से) - त, थ, द, ध, न
(v) वर्त्सय (दाँतों के मूल से) - स, ज, र, ल
(vi) ओष्ठय (दोनों होंठों से) - प, फ, ब, भ, म
(vii) दंतौष्ठय (निचले होंठ व ऊपरी
दाँतों से) - व, फ
(viii) स्वर यंत्र से - ह
संयुक्त व्यंजन :- जो व्यंजन दो या दो से अधिक व्यंजनों के मेल से बनते हैं, वे संयुक्त व्यंजन कहलाते हैं।
ये संख्या में चार हैं :
क्ष = क् + ष + अ = क्ष (रक्षक, अक्षय)
त्र = त् + र् + अ = त्र (पत्रिका, त्रिकोण)
ज्ञ = ज् + ञ + अ = ज्ञ ( ज्ञाता, विज्ञान )
श्र = श् + र् + अ = श्र ( श्रम, श्रवण)
संयुक्त व्यंजन में पहला व्यंजन
स्वर रहित तथा दूसरा व्यंजन स्वर सहित होता है।
द्वित्व व्यंजन :- जब एक व्यंजन का अपने समरूप व्यंजन से मेल होता है, तब वह द्वित्व व्यंजन कहलाता हैं।
जैसे- क् + क = पक्का
च् + च = सच्चाई
म् + म = सम्मान
त् + त = कुत्ता
द्वित्व व्यंजन में भी पहला
व्यंजन स्वर रहित तथा दूसरा व्यंजन स्वर सहित होता है।
संयुक्ताक्षर :- जब एक स्वर रहित व्यंजन अन्य स्वर सहित व्यंजन से मिलता है, तब वह संयुक्ताक्षर कहलाता हैं।
जैसे- क् + त = क्त = युक्त
स् + थ = स्थ = प्रस्थान
स् + व = स्व = राजस्व
द् + ध = द्ध = बुद्ध
यहाँ दो अलग-अलग व्यंजन मिलकर कोई
नया व्यंजन नहीं बना
वर्णों का उच्चारण
कोई भी वर्ण मुँह के भित्र-भित्र
भागों से बोला जाता हैं। इन्हें उच्चारणस्थान कहते हैं।
मुख के छह भाग हैं- कण्ठ, तालु, मूर्द्धा, दाँत, ओठ और नाक। हिन्दी के सभी वर्ण
इन्हीं से अनुशासित और उच्चरित होते हैं। चूँकि उच्चारणस्थान भित्र हैं, इसलिए वर्णों की निम्नलिखित श्रेणियाँ बन गई हैं-
कण्ठ्य- कण्ठ और निचली जीभ के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- अ, आ, कवर्ग, ह और विसर्ग।
तालव्य- तालु और जीभ के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- इ, ई, चवर्ग, य और श।
मूर्द्धन्य- मूर्द्धा और जीभ के स्पर्शवाले वर्ण- टवर्ग, र, ष।
दन्त्य- दाँत और जीभ के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- तवर्ग, ल, स।
ओष्ठ्य- दोनों ओठों के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- उ, ऊ, पवर्ग।
कण्ठतालव्य- कण्ठ और तालु में जीभ के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- ए,ऐ।
कण्ठोष्ठय- कण्ठ द्वारा जीभ और ओठों के कुछ स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- ओ
और औ।
दन्तोष्ठय- दाँत से जीभ और ओठों के कुछ योग से बोला जानेवाला वर्ण- व।
व्यंजनों का उच्चारण
व्यंजनों के उच्चारण के गलत प्रयोग से शब्दों का अर्थ ही बदल जाता
है
'व' और 'ब' का उच्चारण- 'व' का उच्चारणस्थान दन्तोष्ठ हैं, अर्थात दाँत और ओठ के संयोग से 'व' का उच्चारण होता है और 'ब' का उच्चारण दो ओठों के मेल से
होता हैं। बोलचाल में कई लोग 'व' और 'ब' का उच्चारण एक ही तरह करते हैं।
इसके फलस्वरूप शब्दों का अशुद्ध प्रयोग हो जाता हैं।
जैसे : वास और बास का
अलग अर्थ है , और वेग तथा बेग का अलग
जैसे वाद का अर्थ है मुकदमा और बाद का पश्चात्
'ड़' और 'ढ़' का उच्चारण- इनका उच्चारण
करते समय जीभ झटके से ऊपर जाती है, इन्हें उश्रिप्प (ऊपर फेंका हुआ) व्यंजन कहते हैं।
स-ष-श का उच्चारण-ये तीनों उष्म व्यंजन हैं, क्योंकि इन्हें बोलने से साँस की ऊष्मा चलती हैं। ये संघर्षी
व्यंजन हैं। 'श' और 'स' के उच्चारण में भेद होता हैं।
इनके भी अर्थ उच्चारण से बदल जाते
हैं जैसे शंकर का अर्थ है महादेव और संकर का मिश्रित
'ड' और 'ढ' का उच्चारण-इसका उच्चारण शब्द के आरम्भ में, द्वित्व में और हस्व स्वर के बाद अनुनासिक व्यंजन के संयोग से होता है।
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