आत्म संतुष्टि - एक लघु कथा
कोरोना वायरस लॉक डाउन 2.0 के एक दिन की बात है
अभी ऑफिस के लिए निकलकर जाने को रास्ते में ही था कि देखा रास्ते पर कुछ गाडियाँ थीं और लोगों की लाइन लगी थी ।
पास जाकर पता चला कुछ समाजसेवी राशन वितरण कर रहे थे । जिज्ञासा वश थोड़ी देर रुककर देखने का मन हुआ । आटा , दाल, चावल, तेल आदि का एक एक पैकेट वितरण हो रहा था ।
लाइन में सिर्फ और सिर्फ महिलाओं को खड़ा किया गया था । देखकर ऑफिस की ओर आगे बढ़ने ही वाला था लेकिन पीछे खड़ी महिलाओं की व्याकुलता और बातें सुनकर थोड़ी देर और रुक गया ।
महिला कह रही थी " बहन भाग्य ही खराब है कल भी कुछ नहीं मिला और आज भी घर के काम से देर से आ पाई अब पता नहीं मिलने का नंबर आ पाएगा या कल की तरह समान खत्म हो जाएगा , अब तो घर मे कुछ भी नहीं बचा जो था आज बच्चों के लिए बना कर आ गई "
आगे वाली महिला शायद उसको और उसकी परिस्थितियों को अच्छे से जानती थी तो उसको खुद से आगे कर दिया और अपने से आगे खड़ी महिला को भी बोलकर उससे भी आगे करवा दिया ।
इस सबको मेरे अलावा वहाँ खड़ा लाइन को संभाल रहे एक सख्स और देख और सुन रहा था । हमारी निगाहें आपस में टकराईं वह व्यक्ति जाना पहचाना से लग रहा था पर मास्क की वजह से पहचान नहीं पाया । उसने दूर से मेरी तरफ अभिवादन किया और मैंने भी हाथ हिलाकर जबाब दिया ।
जिन महिलाओं को राशन मिलता जा रहा था वे खुशी खुशी लेकर वापस जाती जा रही थी । थोड़ी देर में ही जिस गाड़ी से वितरण हो रहा था उस पर नजर गई उधर जाकर देखा तो लगा वाकई आज फिर कुछ महिलाओं के लिए राशन कम पड़ने वाला है ।
मेरी नजरों में अब अधिक जरूरतमंद अब पीछे खड़ी महिलाएं ही थीं क्योंकि उनकी बातें हम काफी देर से सुन रहे थे । हुआ भी यही देखते देखते सब पैकेट खत्म हो गए । और पीछे वाली लगभग बारह से पंद्रह महिलाएँ देखती रह गईं ।
आपस मे बातें करते कुछ महिलाएं तुरंत बड़बड़ाती हुई वापस लौट गईं , कुछ सिर्फ खाना ही मिल जाए कहीं वो देखते हुए आगे बढ़ गईं ।
लेकिन लास्ट में खडीं वो पांच छः महिलाएं वहीं बैठ गईं , वो सब उस रो रही महिला को ढांढस बंधा रही थीं जो कह रही थी अब शाम के लिए कुछ भी नहीं है घर में ।
मेरी नजर एक बार फिर उस सख्स से मिली तो वो मेरे पास आया अब मैं उसे पहचान गया था वो एक समाजसेवी थे। उसने बताया कि ये पैकेट एक दुकान से बनकर आए हैं । एक पैकेट की कीमत उसने लगभग 400 रुपए बताई ।
मैंने कहा और पैकेट हों तो इनको भी दिलवा दो , उसने कहा हाँ मैंने सुन लिया है पर गाड़ी में पैकेट खत्म हैं ।
मैंने पर्स निकाला तो सिर्फ हजार रुपए पड़े थे , छः पैकेट के 2400 रूपए होते हैं । मेरा संकोच और चाह उन्होंने भांप लिया वे समझ गए थे कि मैं बची छः महिलाओं के लिए कुछ देना चाहता हूँ ।
उन्होंने बिना पूछे ही गाड़ी वाले को आवाज दी कि भाईसाहब अपनी दुकान से ऐसे ही छः पैकेट बनवाकर और ले आओ । मैंने कहा पर मेरे पास सिर्फ हजार रुपए हैं ।
महिलाएं हमारी बातें सुनकर थोड़ी सी आश्वस्त सी हो गई थीं उनको लग रहा था कि आज उनको दो चार दिन का राशन शायद मिल जाएगा ।
उन्होंने मुझसे वे हजार रुपए लिए और अपना पर्स निकाला उसमें भी सिर्फ पाँच सौ ही थे । वे गाड़ी वाले भाईसाहब से बोले कि ये 1500 पकड़ो बाकी मेरे उधार में लिख देना ।
गाड़ी वाले भाईसाहब ने कहा भाईसाहब क्यों शर्मिंदा कर रहे हो जब आप लोग इतना कर सकते हो तो बाकी के 900 रुपए मैं अपने नहीं लगा सकता क्या ? और वो पैकेट लेने चले गए ।
गाड़ी वाले भाईसाहब की बात सुनकर दिल खुश हो गया । समझ गया था कि इंसानियत आज भी जिंदा है । जरूरतमंदों को देखते ही लोगों की भावनाएं खुद व खुद जाग्रत होती हैं ।
जरूरतमंदों के लिए आज सैकडों संस्थाएँ ग्रुप आदि खुलकर सामने आ रहे हैं राशन और खाने के वितरण की ऐसी व्यवस्था सरकार अपने सिस्टम के तहत कभी नहीं कर सकती जो चारों ओर देखने को मिल रही है ।
दान तो पीएम केयर और सीएम फण्ड में भी दिया पर जो आत्मसंतुष्टि आज अपने सामने जरूरतमंद को गए सीधे फायदे को देखकर मिली उसका वर्णन करना मुश्किल था ।
धन्यवाद के पात्र हैं वे लोग जो लगातार गरीबों में खाना और राशन पहुँचा रहे हैं । और इस बाकये के बाद ये भी जान गया कि उन लोगों को इस कार्य को करने से क्या मिलता है । जी हाँ वही जो आज मुझे मिला था 'आत्म सन्तुष्टि' .।
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